श्यौराज सिंह की किताब ज़िन्दगी को ढूंढते हुए : आत्मकथा-2 का एक अंश, वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित।
मेरा समय बर्बाद हो गया। इस बीच एक पीढ़ी और जवान हो गई, लेकिन एक ब्राह्मण की रेसिपी का स्वाद मुझे आज भी ऐसा लगता है, जैसे अभी-अभी चखा है। आपको पता है कि उसका स्वाद कैसा था?
वाकया सन् 1986-87 का है। उन दिनों मेरा एक नया-नया दोस्त विनोद गोस्वामी बना। मेरे कवि रूप का प्रशंसक विनोद था और मेरा वही गुण उसके लिए मेरे प्रति आकर्षण और समर्पण का कारण था। कविता प्रतियोगिता में विनोद ने भी अपनी एक मूल कविता प्रस्तुत की थी। विनोद का सम्बन्ध पाली मुकीमपुर (अतरौली) से भी था। वहां उसकी बट-फूफा थी। बाद में मेरी माँ का पुनर्विवाह हुआ। मेरे सौतेले पिता और भाई की विनोद से अच्छी जान-पहचान थी। विनोद की अंग्रेजी भाषा पर अच्छी पकड़ थी। तेजसिंह को वह कुछ दिन की जेल की पढ़ाई थी।
विनोद एम.एस.एस.सी. कर रहा था. उसका माली हालत अच्छा था। पिता ‘नरसैना’ गाँव के प्रधान थे। सातवें-सत्तर के आस-पास दिलचस्प मंजिल वाले विनोद ने कहा, “कोई छोटा-सस्ता कमरा मिले तो बताओ।” मैं अपने पास चाहता हूँ। और अधिक दे सकते हैं। पर मैं मांग नहीं…
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